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खोइछा क्या है इसका अर्थ, खोइछा भरने की सामग्री, का महत्व [ What is Khoichha, Khoicha bharne ki samagri, Khoicha tradition,Importance of khoichha ]
What is Khoichha and its meaning – इसे यूपी और बिहार के कुछ हिस्सों में “कोछा पूजना” भी कहते हैं। इसमें लड़की शादी के बाद जब भी अपने मायके से वापस ससुराल आती है तब ये रस्म निभाई जाती है। खोइछा बिलकुल उन्ही सब त्योहारों में से एक है जिन्हे ज्यादातर लोग अब भुला चुके हैं। पर इन त्योहारों की प्रासंगिकता अभी भी बरक़रार है। इससे यहाँ के लोग अभी भी भावनात्मक रूप से जुड़े हुये हैं।
जब भी माँ नानी के घर जाती, आने-जाने की तारीख लगभग तय ही रहती थी । यूँ कहें तो मम्मी जानती थी कि अमुक दिन, तय समय पर नानी की देहरी छोड़नी ही है। फिर भी आने के समय नानी जब उन्हें पूजा घर में ले जा कर, सूप में रखी चीजों को सीधा उनके आँचल में गिराती (खोइंछा), तो जैसे-जैसे चावल के दाने गिरते, दोनों की आँखों से आँसू भी बह निकलते थे।
मुझे लगता कि क्यों रोती है माँ? क्या इन्हें हमारे साथ आना अच्छा नहीं लगता ! या हमसे ज्यादा कहीं ये नाना-नानी से तो प्यार नहीं करती? ईर्ष्या और दुःख दोनों साथ-साथ ही मेरे मन के अन्दर घर करते, और फिर उत्पत्ति होती उस दम्भ की, कि मैं तो नहीं रोऊँगी, जब मैं ससुराल जाऊँगी। शायद यही पहला छाप था मेरे बालमन में खोइंछा और ससुराल का।
खोइछा रखना या इसी तरह की अन्य चीजों को आज की पीढ़ी अन्धविश्वास भी मान सकती है पर पहले के हर रीति रिवाज को इसी तरह से मनाया जाता था। इससे न सिर्फ आने जाने का समय पक्का हो जाता था बल्कि आपको उस घर से आपकी विदाई से आपकी उस घर में अहमियत का पता भी चल जाता था। साथ ही घर के अन्य लोगों को आपके जाने के प्लान का पता चल जाता था जिससे उन्हें चीजें प्लान करने में सुविधा होती थी।
खोइछा क्या क्या सामान होता है और उसका अर्थ Khoicha bharne ki samagri and What is Khoichha
खोइंछा अगर चन्द शब्दों में कहा जाये तो – चावल या जीरे के चन्द दाने, हल्दी की पाँच गाँठ, दूब की कुछ पत्तियाँ और पैसे या चाँदी की मछली या सिक्के। लेकिन भावनाओं में इसका आकलन करना थोड़ा नहीं बल्कि बहुत मुश्किल है। इसमें होता था, माँ का दिया सम्बल, पिता का मान, भाई-बहनों का प्यार और परिवार का सम्मान।
खोइंछा हमेशा बाँस के सूप से ही दिया जाता है, जो वंश वृद्धि का द्योतक है।
हल्दी के पाँच गाँठ। वैसे तो हल्दी खुद में ही शुद्ध है, जिसे जीवन ऊर्जा देने वाले सूर्य का प्रमाण माना जाता है, परन्तु पाँच गाँठ इसलिए ताकि वो जीवन ऊर्जा हमेशा सकरात्मक हो, नकरात्मक नहीं और गाँठों की तरह ही ये पूरे परिवार को एक साथ बांधे रहे।
हरा दूब – परिवार को सजीवता देने के लिए।
चाँदी की मछली या सिक्के – लक्ष्मी की तरह ससुराल की बरकत बनाए रखने के लिए।
असल मायने में खोईछा का अर्थ तब समझ आया, जब द्विरागमन में मुझे खोईछा मिला।
माँ मेरे आँचल में खोइंछा भर रही थी, और दानों के साथ मेरे अन्दर का न रोने वाला दम्भ भी आँखों के रास्ते आँसू बन कर पिघल रहा था।
खोइंछा में से जब पाँच चुटकी वापस सूप में रखा तो लगा, विवाहोपरान्त भी मायके से अलग नहीं हुई हूँ। कुछ अंश अभी भी है मेरा और मन कह रहा था कि ये फुलवारी ऐसे ही बनी रहे, भले ही मैं किसी और की क्यारी की शोभा बनूँ।
विदाई के बाद रास्ते में जब भी डर लगता, नये घर, नये लोग, नया परिवार, आँचल में बंधा खोइंछा, वैसा ही सान्त्वना देता जैसे कि माँ।
खोइछा परंपरा के पीछे मान्यता The belief behind the Khoicha tradition
खइंछा हमारे पूर्वांचल में पहले सिर्फ़ मायके से ससुराल जाने के वक़्त, माँ या भाभी से मिलता था। इसके पीछे मान्यता ये थी कि माँ अपनी पुत्री को धन्य-धान्य से भर कर, माँ लक्ष्मी और अन्नपूर्णा के रूप में ससुराल भेजती है।
खोइछा का महत्व Importance of khoichha
अब तक तो आप सभी इस खोइछा का हमारे समाज में महत्व समझ ही गए होंगे। खोइछा सिर्फ एक परंपरा ही नहीं है बल्कि यह माँ, बाप या कहें पूरे मायके से बेटी को दिया जाने वाला आशीर्वाद है। इसलिए यह घरवालों को अधिक भावुक कर देता है।
इसमें इस्तेमाल की जाने वाली सभी सामग्री किसी भी समय घर में मिल जाती हैं और महंगी भी नहीं होती हैं। इसलिए यह भावनात्मक और घर को जोड़ने वाली परंपरा होने पर भी घर वालों पर कोई आर्थिक बोझ नहीं डालती है।
इस परंपरा में घर से विदा होने वाली बेटी खुश होती है कि उसे घर से सम्मान के साथ विदा किया इसका मतलब मेरा आज भी घर में स्थान है और मेरे सुखी जीवन की मायके वाले कामना करते हैं और आशीर्वाद भी देते हैं
अंत में खोइछा और अब
लेकिन फैशन के दौड़ में खोइंछा भी अछूता नहीं रहा। इसे भी लोगों ने दिखावे के लिए इस्तेमाल कर लिया। अब तो ससुराल में खोइंछा दुल्हन के मायके का स्टेटस बयाँ करता है।
कहीं-कहीं तो ये रिवाज़ ही अब अन्तिम साँसें ले रहा है । क्योंकि हमारे ब्राण्डेड पर्स (मेकअप, मोबाइल और वॉलेट से भरे) में भी इसके लिए कोई जगह नहीं बची है और ये रिवाज भी अब ओल्ड फैशन हो गया है ।
हमारे यहाँ तो देवियों को भी बेटी का ही रूप माना जाता है। पूजा के बाद विसर्जन से पहले सभी सुहागिनें उन्हें खोइंछा देकर विदा करती हैं।
अब तो बस इतनी सी आशा है कि हमारा खोइंछा, उतना ही पावन और सुसंस्कृत रहे । दोनों ही घर (ससुराल एवं मायका), वैसे ही महकते और लहलहाते रहें। भले ही ओल्ड फैशन हो चुका हो, पर खोइंछे की परिपाटी बनी रहे …..
लेकिन अब लुप्त हो रहा है,अतः निवेदन है कि इस संस्कृति को चालू ही रखें।
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